Friday, 18 February 2011

मज़हब छोड़ो काफिरों से नाता जोड़ो

जो मैने गाया तेरे तारानो को दर-ब-दर तू कहता है मैं होश मैं हूँ,
जो मैं 'आँसुओं' को सिमटने बैठ बैंठा सारे कहने लगे मैं 'मदहोश' सा कुछ हूँ,
तू 'इनकार' कर 'ज़बान' पर 'अल्लाह' कहता मैं भी हूँ मगर 'ए-मज़हब-कारींदार' मेरे,
जो हो, था, होगा या हमेशा रहा है 'इस्लाम' तेरा वही 'हिंद' का ईमान है,
'हिन्दुस्तान' किसी एक की जागीर नहीं यही हम सब का 'निशान' हैं!

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