Friday, 18 February 2011

मौत

मौत का एक दिन मुक़रर्र है,
ज़िंदगी की बाँह फैला ले,
जाती हैं जान तो जाए,
पर जान को पहले बुला ले,
पनाह दे कुछ गैरों को भी,
मौत के फरिश्ते को बहला ले,
देखें हैं हमने 'मौत' से डरने वाले बहुत,
तू दुत्त्कार ज़िंदगी को मौत का दामन सहला ले,
तू सिकंदर है कोई लतीफ़ा नहीं 'ईमान' से,
जाए गर यार की जान तेरे पहले तो,
तू ईमान से 'ख़ुदकुशी' का इंतज़ाम बना ले,
अब ये ज़िंदगी 'मौत' की 'मुंतज़ार' है,
क्यूंकी 'मौत का एक दिन मुक़र्रर' है!

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