की मर सकता हूँ मैं भी अभी,
पर जो एलान-ए-ख़ुदकुशी करते हैं,
असल में 'खुद्कुश' होतें नहीं,
वो जो भी हों 'हाफ़िज़-ए-क़ुरान' ही सही,
पर 'आशिक़' कभी होते नहीं,
मैने 'इबादत' की है सिर्फ़ मेरे यार की,
न 'फ़तवा' देना मेरा नाम का कभी,
ए 'हसीन-अंजान' तू खुदा से कमतर नहीं,
खुदा की क्या मज़ाल तेरे सामने आए तो सही!
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