कोशिश की थी, एक बार,
कविता गाढ़ने की, तो कविता,
हमसे गढ़ गई, घोर आश्चर्य,
हमारे पल्ले भी पड़ गई!
कविता गड़ना आसान हैं, गाढ़ना नहीं!
सातवीं के छात्र थे, मन में आया कवि बने,
स्कूल में भी, स्वयं-भू कवियों की कमी को भरें,
इसी पवित्र विचार के साथ, हम बढ़े स्कूल के पुस्तकालय की ओर,
देख इस घटना को हुए, हमारे हिन्दी के अध्यापक 'भाव-विभोर',
उन्हे क्या पता था, हमारे मन था चोर,
उन्हे वहाँ देख, मन में आया,
हो जायें, वन टू का फोर!
पर कवि कहलाने का था, भूत ऐसा सवार,
लग रहे थे मिश्रा जी, हमको खरपतवार,
हम उन्ही पर लपक लिए, और पूंछ लिया,
"सर आपकी क्लास का टाइम हो गया?"
फिर समझ में आया, यह क्या कह डाला?
क्लास तो अब हमारी लगनी थी, तैयार हो लिए,
खाने को मिश्रा जी से, बेधड़क चांटा,
कैसे चोर ने कोतवाल को, उल्टा डांटा!
भगवान होते हैं, उसी वक़्त परम-ज्ञान हुआ,
जब हम बच गये, और राम हिर्दय में,
बस गये!
अब मुँह में लिए राम-नाम, और बगल में छुरी,
किस कवि का करें पोस्ट-मॉर्टेम? करेंगे उसीकी पुस्तक चोरी,
राम ने काम खूब किया, अब आई छुरी की बारी,
पर काटेंगे पन्ना एक, पुस्तक ना हो जाए सत्यानाश सारी!
इसलिए नहीं की हमें, फ्यूचर-मेटीरियल की थी चिंता,
पर परीक्षा के वक़्त राम नाम नहीं चलता,
हम होते थे, मा सरस्वती के परम भक्त,
परीक्षा के वक़्त!
कुछ कवियों का नाम तो हमें पता था, जैसे,
दिनकर, सुभद्रा, महादेवी, नीरज, निराला और हरिवंश,
पर नज़रें हरिवंश के, बच्चन नाम के अंश,
पर टिक गई!
खोजा बहुत तो मिली मधुशाला, भर गया मेय का प्याला,
फिर लगा दारू पर किताब हैं शायद, सिंह सर भी दारूखोर हैं,
ज़रूर पढ़ी होंगी, उनका तो मिज़ाज भी शायराना हैं,
बच्चन को रिजेक्ट किया, शुरू हो गई फिर से गाढ़ने की प्रक्रिया!
मन में आया मिल जाए कोई ऐसा कवि, जिससे जानता हो सिर्फ़ दिनकर या रवि,
सबसे बेचारी सी किताब पर, हमारी नज़र पड़ी,
थी कोई वीदेसी की, परंतु हिन्दी में अनुवाद करी,
सोने-पर सुहागा थी, किताब,
खा रहीं थी दीमक, बेहिसाब,
सॅंड रही थी धूल में पड़ी!
कवि भी भूत पूर्व से लग रहे थे, अमेरिका के कवि,
एकदम पर्फेक्ट कवि जैसा चेहरा था, कम्यूनिस्ट की भाँति,
शायद अमेरिकी कॅपिटलिज़म उन्हे रास नहीं आई, इसीलिए जल्दी सिधार लिए,
और हमने उनकी महान-रद्दी पुस्तक से, तीन पन्ने गाढ़ लिए!
फिर लगा पन्ने कम न पड़ जाए, फिर ना आ-पायगा,
ऐसा मौका, मन किया मार दे चौका,
वैसे भी यह पुस्तक बेचारी, पाठकों की बेरूख़ी की मारी,
जो काम आएँ थोड़ी हमारी, विधा मा को भी होंगी,
खुशी ढेर सारी!
पूरी की पूरी पुस्तक ही ले उड़े, छुपाकर बाहर आए जैसे तैसे,
मिश्रा जी फिर टपक पड़े, टका-टक देख ली पुस्तक, पास में खड़े-खड़े,
पुस्तक ले जाना कोई अपराध नहीं, फिर सोचा क्या करें,
मिश्रा जी ने भी क्या पढ़ी होगी ये किताब?
उनकी शक्ल से तो लगता नहीं, उनका हैं इतना टाइम खराब!
रात भर बड़ी मेहनत करी, 4 लाइन टीप कर जड़ दी,
सुबह होते ही नव-निर्मित कविता, स्कूल के प्रकाशन में चेप दी,
प्रकाशित हो गयी, हमारी कविता,
हमारा दिमाग़ अब था बिल्कुल 'फिट', कविता हो गयी थी 'हिट'!
बात पुरानी हो गयी और हम भी, १२वीं पार करके!
अब हमारा हृदय भी, कवि हृदय था,
परंतु, अब हमें और की रचनाओ में रूचि न थी,
क्यूंकी कविता गड़ना आसान हैं, गाढ़ना नहीं,
यह बात हम बखूबी, जान चुके थे,
और अपने कौशल को पहचान चुके थे!
मिश्रा जी भी हमसे बहुत खुश हुए, पत्र भी लिखा,
शानदार, प्रशंसाओ से भरा पत्र, अंत में लिखा,
'कवि वो बढ़ा जो लाखो द्वारा पढ़ लिया जाए,
या वो जो स्वयम्-भू कवियों द्वारा गढ़ लिया जाए'?
बात हमारे ऊपर से चली जाती, अगर,
वो किताब हमारे पास से भी गढ़ जाती!
प्रथम पन्ने पर अगर, उस् वक़्त नज़र जाती,
तो मिश्रा जी को सच में, गुरु मान लेते,
और भी इज़्ज़त देते, ज़ाकिर हुसैन की तरह,
जो हैं तबला वादक, क्यूंकी मिश्रा जी थे,
उस पुस्तक के 'अनुवादक'!
- अभिषेक बुंदेला
गाढ़ना (to steal)
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