मैं तेरी किताब में रखा,
मोहब्बत का ख़त नहीं, जो,
सिरहाने रख कर सोलिए,
फलक पढ़ कर रोलिए,
फिर पढ़-कर भूल गये,
मैं हिजाब हूँ तेरा, जो,
तुझे हर वक़्त देखा करता है!
मैं मुदस्सर ना सही,
तू आफ्रीन-बेदाग है!
याद रख इबादत में,
इस नक़ाब को ना हटा लेना,
यह ना समझ लेना,
तेरा आशिक़ काफ़िर हो चला,
क्या कहूँ,
इस मुआम्लाए में ख़ुदाई पर भी यकीन नहीं,
मैं नक़ाब हूँ तेरा, जो,
तुझे हर वक़्त देखा करता है!
दीदार-ए-यार में मज़हब,
ना भूल जाउ मैं,
मज़हब ना भूल जाउ मैं,
अब ये मुसलमान गुलाम तेरा है,
और तू बुत बनी, देख रही सब,
तू बुत बनी देख रही सब,
ये गुमान तेरा है,
तू बुत बन-बन बुत ही ना बन जाना,
बुत ही ना बन जाना,
'बुतपरस्ती' करना ना ईमान मेरा है!
उनके 'ज़ेहन' से-
"तू न ही मेरी किताब,
तू न ही मेरा 'हिजाब ',
तू न ही मेरा 'नक़ाब',
ए 'महबूब-ए-बेमुरब्बत' मेरे,
तू तो मेरा ख़्वाब है,
जिसे मैं हर वक़्त देखा करती हूँ!"
- अभिषेक बुंदेला
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