Sunday, 5 September 2010

कोई स्वप्न नहीं मैं!

कोई स्वप्न नहीं मैं!
पानी की शीतलता ने एहसास कराया,
कोई स्वप्न नहीं हूँ मैं,
देखों कितने गवाह हैं यहाँ,
तारे, चंद्रमा, सूर्य, शनि, और देखो,
पृथ्वी भी हैं 'दूर' वहाँ!

मैं कोई स्वप्न नहीं,
चाहो तो वो दूर खड़े,
'गीजा' से पूछो, विशाल-विस्त्र्त 'गीजा',
तुम्हे अपनी वास्तविकता का परिचय देने ही,
मिश्र से यहाँ, स्वयं चलकर आया है!

मैं उतना ही सत्य हूँ, जितना,
भविष्य,भूत और वर्तमान, जितना,
समय, तुम और तुम्हारा 'मैं',
मानो मेरी, स्वप्न नहीं मैं!

चाहो तो काली हो चूँकि,
'ज्योत्सेना' से पूछो, नहीं में 'मृगतृष्णा',
सूर्य के ताप से पूछो,
वो तुम्हे तपा कर उत्तर देगा,
हैं क्या यह कोई 'ख्वाब'!

यही तुम्हारी वास्तविकता है,
तुम तो 'अग्रसर' हो यहीं पर,
तुम्हारी मानवता का 'सार' है यहीं,
खोजो,जानो,परखो तुम्हे मिलेंगे सारे उत्तर!

चलो मानो यह एक स्वप्न भी है,
तो तुम्ही तो हो इस 'दुस्वप्न' के रचीयता,
क्यूँ नहीं तुन्हे आते स्वप्न प्यार के,
छमा के, याचना के, ममता के, दान के!

जो तुमने बोया है,
उसी की फसल हूँ मैं,
खून से लिखी इबारत हूँ,
काफिरों की गज़ल हूँ मैं,
हाँ एक 'दुस्वप्न' हूँ मैं!

अभी कुछ समय हैं तेरे पास,
जाग, मत कर इतनी प्यास,
ले ये 'प्रण' आज,
देख कितने गवाह हैं तेरे पास,
और समय 'जाया' न कर,
भाग और पकड़ लें, अपनी पृथ्वी को,
वो और भी दूर जा रही हैं!

- अभिषेक बुंदेला

No comments:

Post a Comment