Sunday, 5 September 2010
हालत, हालात: हल? हल!
किस 'हालत' में 'राष्ट्र' खड़ा,
सॅड रहा 'अन्न' पड़ा-पड़ा,
न 'फूटत' निर्लज 'पापी-घड़ा',
किन 'हालात' में अब आन पड़ा?
'हालत-ए-हालात' हरण हल,
पीना पड़ेगा विष 'हलाहल',
मच जाएँगा 'हाहाकार',
'झुक' जाएँगी ये 'सरकार'!
हालत बदलने हालात बदलने का,
'हल' ही 'हल' है,
फिर 'उठाओ' अपने 'तरकश',
और वार करो इस 'बंजर' धरती पर,
बनाओ एक 'मानसरोवर' नया,
सींचो अपने खून से पुन:,
ये तय है,
मेहनत रंग लाएगी,
तेरे लहू से 'तृप्त' होकर,
'बंजर' भी 'मा' बन जाएँगी!!
फिर दो 'एक' और 'प्रमाण',
'झुक' जाए शर्म से हर 'इंसान',
अब 'लाल-बहादुर' जैसा कोई न मिलेगा,
करो तिलक अपनी मा का,
'भेंट' चढ़ाकर अपने 'शीश',
अरे 'लता' जैसी कई हैं,
गाने को तुम्हारा 'गीत'!!!
या एक बात मानो मेरी,
बग़ावत क्यों बुरी चीज़ हो?
न करता 'आज़ाद' बग़ावत,
क्या 'आज़ाद' कहलाता वो?
'हालत' व 'हालात' जस के तस हैं,
'हल' फिर भी 'हल' है,
अब चाहे 'बो' लो अपनी 'तकदीर',
या उठालो 'लाल' झंडा 'हल' का,
और बदल डालो 'राष्ट्र' की 'तस्वीर'!!!
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बहुत सार्थक बात काही है ...
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया।
ReplyDeleteसादर