Sunday, 5 September 2010
खाली हाथ भरे ज़ज़्बात: मेरे दिल ए 'बाज़ारू औरत'
कविता गढ़ गई
कोशिश की थी, एक बार,
कविता गाढ़ने की, तो कविता,
हमसे गढ़ गई, घोर आश्चर्य,
हमारे पल्ले भी पड़ गई!
कविता गड़ना आसान हैं, गाढ़ना नहीं!
सातवीं के छात्र थे, मन में आया कवि बने,
स्कूल में भी, स्वयं-भू कवियों की कमी को भरें,
इसी पवित्र विचार के साथ, हम बढ़े स्कूल के पुस्तकालय की ओर,
देख इस घटना को हुए, हमारे हिन्दी के अध्यापक 'भाव-विभोर',
उन्हे क्या पता था, हमारे मन था चोर,
उन्हे वहाँ देख, मन में आया,
हो जायें, वन टू का फोर!
पर कवि कहलाने का था, भूत ऐसा सवार,
लग रहे थे मिश्रा जी, हमको खरपतवार,
हम उन्ही पर लपक लिए, और पूंछ लिया,
"सर आपकी क्लास का टाइम हो गया?"
फिर समझ में आया, यह क्या कह डाला?
क्लास तो अब हमारी लगनी थी, तैयार हो लिए,
खाने को मिश्रा जी से, बेधड़क चांटा,
कैसे चोर ने कोतवाल को, उल्टा डांटा!
भगवान होते हैं, उसी वक़्त परम-ज्ञान हुआ,
जब हम बच गये, और राम हिर्दय में,
बस गये!
अब मुँह में लिए राम-नाम, और बगल में छुरी,
किस कवि का करें पोस्ट-मॉर्टेम? करेंगे उसीकी पुस्तक चोरी,
राम ने काम खूब किया, अब आई छुरी की बारी,
पर काटेंगे पन्ना एक, पुस्तक ना हो जाए सत्यानाश सारी!
इसलिए नहीं की हमें, फ्यूचर-मेटीरियल की थी चिंता,
पर परीक्षा के वक़्त राम नाम नहीं चलता,
हम होते थे, मा सरस्वती के परम भक्त,
परीक्षा के वक़्त!
कुछ कवियों का नाम तो हमें पता था, जैसे,
दिनकर, सुभद्रा, महादेवी, नीरज, निराला और हरिवंश,
पर नज़रें हरिवंश के, बच्चन नाम के अंश,
पर टिक गई!
खोजा बहुत तो मिली मधुशाला, भर गया मेय का प्याला,
फिर लगा दारू पर किताब हैं शायद, सिंह सर भी दारूखोर हैं,
ज़रूर पढ़ी होंगी, उनका तो मिज़ाज भी शायराना हैं,
बच्चन को रिजेक्ट किया, शुरू हो गई फिर से गाढ़ने की प्रक्रिया!
मन में आया मिल जाए कोई ऐसा कवि, जिससे जानता हो सिर्फ़ दिनकर या रवि,
सबसे बेचारी सी किताब पर, हमारी नज़र पड़ी,
थी कोई वीदेसी की, परंतु हिन्दी में अनुवाद करी,
सोने-पर सुहागा थी, किताब,
खा रहीं थी दीमक, बेहिसाब,
सॅंड रही थी धूल में पड़ी!
कवि भी भूत पूर्व से लग रहे थे, अमेरिका के कवि,
एकदम पर्फेक्ट कवि जैसा चेहरा था, कम्यूनिस्ट की भाँति,
शायद अमेरिकी कॅपिटलिज़म उन्हे रास नहीं आई, इसीलिए जल्दी सिधार लिए,
और हमने उनकी महान-रद्दी पुस्तक से, तीन पन्ने गाढ़ लिए!
फिर लगा पन्ने कम न पड़ जाए, फिर ना आ-पायगा,
ऐसा मौका, मन किया मार दे चौका,
वैसे भी यह पुस्तक बेचारी, पाठकों की बेरूख़ी की मारी,
जो काम आएँ थोड़ी हमारी, विधा मा को भी होंगी,
खुशी ढेर सारी!
पूरी की पूरी पुस्तक ही ले उड़े, छुपाकर बाहर आए जैसे तैसे,
मिश्रा जी फिर टपक पड़े, टका-टक देख ली पुस्तक, पास में खड़े-खड़े,
पुस्तक ले जाना कोई अपराध नहीं, फिर सोचा क्या करें,
मिश्रा जी ने भी क्या पढ़ी होगी ये किताब?
उनकी शक्ल से तो लगता नहीं, उनका हैं इतना टाइम खराब!
रात भर बड़ी मेहनत करी, 4 लाइन टीप कर जड़ दी,
सुबह होते ही नव-निर्मित कविता, स्कूल के प्रकाशन में चेप दी,
प्रकाशित हो गयी, हमारी कविता,
हमारा दिमाग़ अब था बिल्कुल 'फिट', कविता हो गयी थी 'हिट'!
बात पुरानी हो गयी और हम भी, १२वीं पार करके!
अब हमारा हृदय भी, कवि हृदय था,
परंतु, अब हमें और की रचनाओ में रूचि न थी,
क्यूंकी कविता गड़ना आसान हैं, गाढ़ना नहीं,
यह बात हम बखूबी, जान चुके थे,
और अपने कौशल को पहचान चुके थे!
मिश्रा जी भी हमसे बहुत खुश हुए, पत्र भी लिखा,
शानदार, प्रशंसाओ से भरा पत्र, अंत में लिखा,
'कवि वो बढ़ा जो लाखो द्वारा पढ़ लिया जाए,
या वो जो स्वयम्-भू कवियों द्वारा गढ़ लिया जाए'?
बात हमारे ऊपर से चली जाती, अगर,
वो किताब हमारे पास से भी गढ़ जाती!
प्रथम पन्ने पर अगर, उस् वक़्त नज़र जाती,
तो मिश्रा जी को सच में, गुरु मान लेते,
और भी इज़्ज़त देते, ज़ाकिर हुसैन की तरह,
जो हैं तबला वादक, क्यूंकी मिश्रा जी थे,
उस पुस्तक के 'अनुवादक'!
- अभिषेक बुंदेला
गाढ़ना (to steal)
कविता गाढ़ने की, तो कविता,
हमसे गढ़ गई, घोर आश्चर्य,
हमारे पल्ले भी पड़ गई!
कविता गड़ना आसान हैं, गाढ़ना नहीं!
सातवीं के छात्र थे, मन में आया कवि बने,
स्कूल में भी, स्वयं-भू कवियों की कमी को भरें,
इसी पवित्र विचार के साथ, हम बढ़े स्कूल के पुस्तकालय की ओर,
देख इस घटना को हुए, हमारे हिन्दी के अध्यापक 'भाव-विभोर',
उन्हे क्या पता था, हमारे मन था चोर,
उन्हे वहाँ देख, मन में आया,
हो जायें, वन टू का फोर!
पर कवि कहलाने का था, भूत ऐसा सवार,
लग रहे थे मिश्रा जी, हमको खरपतवार,
हम उन्ही पर लपक लिए, और पूंछ लिया,
"सर आपकी क्लास का टाइम हो गया?"
फिर समझ में आया, यह क्या कह डाला?
क्लास तो अब हमारी लगनी थी, तैयार हो लिए,
खाने को मिश्रा जी से, बेधड़क चांटा,
कैसे चोर ने कोतवाल को, उल्टा डांटा!
भगवान होते हैं, उसी वक़्त परम-ज्ञान हुआ,
जब हम बच गये, और राम हिर्दय में,
बस गये!
अब मुँह में लिए राम-नाम, और बगल में छुरी,
किस कवि का करें पोस्ट-मॉर्टेम? करेंगे उसीकी पुस्तक चोरी,
राम ने काम खूब किया, अब आई छुरी की बारी,
पर काटेंगे पन्ना एक, पुस्तक ना हो जाए सत्यानाश सारी!
इसलिए नहीं की हमें, फ्यूचर-मेटीरियल की थी चिंता,
पर परीक्षा के वक़्त राम नाम नहीं चलता,
हम होते थे, मा सरस्वती के परम भक्त,
परीक्षा के वक़्त!
कुछ कवियों का नाम तो हमें पता था, जैसे,
दिनकर, सुभद्रा, महादेवी, नीरज, निराला और हरिवंश,
पर नज़रें हरिवंश के, बच्चन नाम के अंश,
पर टिक गई!
खोजा बहुत तो मिली मधुशाला, भर गया मेय का प्याला,
फिर लगा दारू पर किताब हैं शायद, सिंह सर भी दारूखोर हैं,
ज़रूर पढ़ी होंगी, उनका तो मिज़ाज भी शायराना हैं,
बच्चन को रिजेक्ट किया, शुरू हो गई फिर से गाढ़ने की प्रक्रिया!
मन में आया मिल जाए कोई ऐसा कवि, जिससे जानता हो सिर्फ़ दिनकर या रवि,
सबसे बेचारी सी किताब पर, हमारी नज़र पड़ी,
थी कोई वीदेसी की, परंतु हिन्दी में अनुवाद करी,
सोने-पर सुहागा थी, किताब,
खा रहीं थी दीमक, बेहिसाब,
सॅंड रही थी धूल में पड़ी!
कवि भी भूत पूर्व से लग रहे थे, अमेरिका के कवि,
एकदम पर्फेक्ट कवि जैसा चेहरा था, कम्यूनिस्ट की भाँति,
शायद अमेरिकी कॅपिटलिज़म उन्हे रास नहीं आई, इसीलिए जल्दी सिधार लिए,
और हमने उनकी महान-रद्दी पुस्तक से, तीन पन्ने गाढ़ लिए!
फिर लगा पन्ने कम न पड़ जाए, फिर ना आ-पायगा,
ऐसा मौका, मन किया मार दे चौका,
वैसे भी यह पुस्तक बेचारी, पाठकों की बेरूख़ी की मारी,
जो काम आएँ थोड़ी हमारी, विधा मा को भी होंगी,
खुशी ढेर सारी!
पूरी की पूरी पुस्तक ही ले उड़े, छुपाकर बाहर आए जैसे तैसे,
मिश्रा जी फिर टपक पड़े, टका-टक देख ली पुस्तक, पास में खड़े-खड़े,
पुस्तक ले जाना कोई अपराध नहीं, फिर सोचा क्या करें,
मिश्रा जी ने भी क्या पढ़ी होगी ये किताब?
उनकी शक्ल से तो लगता नहीं, उनका हैं इतना टाइम खराब!
रात भर बड़ी मेहनत करी, 4 लाइन टीप कर जड़ दी,
सुबह होते ही नव-निर्मित कविता, स्कूल के प्रकाशन में चेप दी,
प्रकाशित हो गयी, हमारी कविता,
हमारा दिमाग़ अब था बिल्कुल 'फिट', कविता हो गयी थी 'हिट'!
बात पुरानी हो गयी और हम भी, १२वीं पार करके!
अब हमारा हृदय भी, कवि हृदय था,
परंतु, अब हमें और की रचनाओ में रूचि न थी,
क्यूंकी कविता गड़ना आसान हैं, गाढ़ना नहीं,
यह बात हम बखूबी, जान चुके थे,
और अपने कौशल को पहचान चुके थे!
मिश्रा जी भी हमसे बहुत खुश हुए, पत्र भी लिखा,
शानदार, प्रशंसाओ से भरा पत्र, अंत में लिखा,
'कवि वो बढ़ा जो लाखो द्वारा पढ़ लिया जाए,
या वो जो स्वयम्-भू कवियों द्वारा गढ़ लिया जाए'?
बात हमारे ऊपर से चली जाती, अगर,
वो किताब हमारे पास से भी गढ़ जाती!
प्रथम पन्ने पर अगर, उस् वक़्त नज़र जाती,
तो मिश्रा जी को सच में, गुरु मान लेते,
और भी इज़्ज़त देते, ज़ाकिर हुसैन की तरह,
जो हैं तबला वादक, क्यूंकी मिश्रा जी थे,
उस पुस्तक के 'अनुवादक'!
- अभिषेक बुंदेला
गाढ़ना (to steal)
भगवा
'भगवा' आतंक नही,
'रंग' नही ,
'हिंदुत्त्व' का,
'अभिन्न' अंग है,
'भगवा' 'अपशब्द' नहीं,
'धैर्य' व 'शौर्य',
का 'गौरत्व' है!
भगवा तो ये भी है,
'राहुल का कलॉवा',
'प्रियंका की राखी,
'मनमोहन का विजय तिलक',
'सोनिया का 'गुजरा' 'सिंदूर',
'अजमेर-शरीफ' की 'चादर',
'भारत मा का आदर',
'चिदंबरम' क्या 'गाली' दे रहे,
इन सबो को तुम?
- अभिषेक बुंदेला
- अभिषेक बुंदेला
'बात' न हो सकी
"कोई हमसे पूछे तो बताएँ,
क्या बात थी जो 'बात' न हो सकी,
'परदा-नशी' वो भी थे,
'बे-गैरत' हम भी नहीं,
अरे छोड़ो भी!
कुछ 'मतलब' की बात नहीं,
बस 'मज़हब' की बात थी!!!"
-अभिषेक बुंदेला
क्या बात थी जो 'बात' न हो सकी,
'परदा-नशी' वो भी थे,
'बे-गैरत' हम भी नहीं,
अरे छोड़ो भी!
कुछ 'मतलब' की बात नहीं,
बस 'मज़हब' की बात थी!!!"
-अभिषेक बुंदेला
दिल्ली
"हिंद की दहलीज़ 'दिल्ली',
दिल को बड़ी अज़ीज़ 'दिल्ली',
'मुगलो' का नूर,
'हज़रत' का सुरूर 'दिल्ली',
हर सुबह 'कामो-काज़',
हर शाम 'महफ़िल-ए-मिज़ाज़' 'दिल्ली',
'जन्नत' की एक 'हूर' 'दिल्ली',
'खुदी' में 'मगरूर' दिल्ली,
'भारत' का 'गुरूर' 'दिल्ली'!!!"
-अभिषेक बुंदेला
दिल को बड़ी अज़ीज़ 'दिल्ली',
'मुगलो' का नूर,
'हज़रत' का सुरूर 'दिल्ली',
हर सुबह 'कामो-काज़',
हर शाम 'महफ़िल-ए-मिज़ाज़' 'दिल्ली',
'जन्नत' की एक 'हूर' 'दिल्ली',
'खुदी' में 'मगरूर' दिल्ली,
'भारत' का 'गुरूर' 'दिल्ली'!!!"
-अभिषेक बुंदेला
गुल गुलशन गुलफाम
"बू-ए-गुल से अहल-ए-दिल मेरे,
चमन गुलज़ार हो गया,
'गुल-आफ्शनी' कर 'बेज़ार' कर दू इन्हे?
बता गुलफाम मेरे क्या ख्वाइश हैं तेरी,
'खियाबान' या 'पैरहाना-ए-लाला-ओ-गुल'!
मुझे शगुफ्तन-ए-गुल है नाज़!"
- अभिषेक बुंदेला
चमन गुलज़ार हो गया,
'गुल-आफ्शनी' कर 'बेज़ार' कर दू इन्हे?
बता गुलफाम मेरे क्या ख्वाइश हैं तेरी,
'खियाबान' या 'पैरहाना-ए-लाला-ओ-गुल'!
मुझे शगुफ्तन-ए-गुल है नाज़!"
- अभिषेक बुंदेला
मैं शराबी हूँ!
क्यूँ परेशान हैं तू?
क्या मेरे 'क़ौल' पर 'अयेत्बार' नहीं,
'वादा' हैं जवाबन,
तेरा मुझ पर ही 'इख्तियार' है,
याद रख में 'शराबी' हूँ कोई 'सियासतदार' नहीं!
'बादाकश ' हूँ मगर पर ए मेरे 'हमसफ़र',
करना इतना यकीन की साकी तुझ से भी,
कहीं ज़्यादा थी 'हसीन',
यह इज़हार मैने तुझसे कर लिया,
'शराबी' हूँ मैं कोई 'काज़िब' नहीं!
तेरे घर कल शाम जो आया,
तुझ पर कम, तेरी 'रकम' पर थी,
ज़्यादा नज़र मेरी जो तुझे ही सनम,
'उलफत-ए-साकी' बना बैठा,
'शराबी' हूँ मगर कोई 'चोर' नहीं!
मैं तो सनम तेरे लिए ही पीया करता हूँ,
जो महबूब को मेरे 'तरानो' से सज़ा सकूँ,
जो तू 'कबीदा' हो गयी,
मुजरिम हूँ तेरा,
शराबी हूँ, तेरा 'हम-सफ़ीर' नहीं!
और यह कसूर मेरा नहीं हैं,
ए मेरे बिस्मिल,
जो तेरी आँखें 'चश्म-ए-मायगूऊन' नहीं,
जो 'बेखत्ता' 'मय-ए-आबिद' हो बैठा,
याद रख 'शराबी' हूँ कोई 'वली' नहीं!
- अभिषेक बुंदेला
क्या मेरे 'क़ौल' पर 'अयेत्बार' नहीं,
'वादा' हैं जवाबन,
तेरा मुझ पर ही 'इख्तियार' है,
याद रख में 'शराबी' हूँ कोई 'सियासतदार' नहीं!
'बादाकश ' हूँ मगर पर ए मेरे 'हमसफ़र',
करना इतना यकीन की साकी तुझ से भी,
कहीं ज़्यादा थी 'हसीन',
यह इज़हार मैने तुझसे कर लिया,
'शराबी' हूँ मैं कोई 'काज़िब' नहीं!
तेरे घर कल शाम जो आया,
तुझ पर कम, तेरी 'रकम' पर थी,
ज़्यादा नज़र मेरी जो तुझे ही सनम,
'उलफत-ए-साकी' बना बैठा,
'शराबी' हूँ मगर कोई 'चोर' नहीं!
मैं तो सनम तेरे लिए ही पीया करता हूँ,
जो महबूब को मेरे 'तरानो' से सज़ा सकूँ,
जो तू 'कबीदा' हो गयी,
मुजरिम हूँ तेरा,
शराबी हूँ, तेरा 'हम-सफ़ीर' नहीं!
और यह कसूर मेरा नहीं हैं,
ए मेरे बिस्मिल,
जो तेरी आँखें 'चश्म-ए-मायगूऊन' नहीं,
जो 'बेखत्ता' 'मय-ए-आबिद' हो बैठा,
याद रख 'शराबी' हूँ कोई 'वली' नहीं!
- अभिषेक बुंदेला
मेरे दिल ए 'बाज़ारू औरत'
मेरे दिल ए 'बाज़ारू औरत',
आइन्दा ऐसा पेश न आ,
जो तू तलाशता है 'हमनवा',
इस 'खुले' बाज़ार में,
'बच्चे दिल' तुझे क्या मालूम?
क़ि दिन ढलते ही,
बाज़ार, 'बेज़ार' नज़र आता है!
-अभिषेक बुंदेला
आइन्दा ऐसा पेश न आ,
जो तू तलाशता है 'हमनवा',
इस 'खुले' बाज़ार में,
'बच्चे दिल' तुझे क्या मालूम?
क़ि दिन ढलते ही,
बाज़ार, 'बेज़ार' नज़र आता है!
-अभिषेक बुंदेला
कोई स्वप्न नहीं मैं!
कोई स्वप्न नहीं मैं!
पानी की शीतलता ने एहसास कराया,
कोई स्वप्न नहीं हूँ मैं,
देखों कितने गवाह हैं यहाँ,
तारे, चंद्रमा, सूर्य, शनि, और देखो,
पृथ्वी भी हैं 'दूर' वहाँ!
मैं कोई स्वप्न नहीं,
चाहो तो वो दूर खड़े,
'गीजा' से पूछो, विशाल-विस्त्र्त 'गीजा',
तुम्हे अपनी वास्तविकता का परिचय देने ही,
मिश्र से यहाँ, स्वयं चलकर आया है!
मैं उतना ही सत्य हूँ, जितना,
भविष्य,भूत और वर्तमान, जितना,
समय, तुम और तुम्हारा 'मैं',
मानो मेरी, स्वप्न नहीं मैं!
चाहो तो काली हो चूँकि,
'ज्योत्सेना' से पूछो, नहीं में 'मृगतृष्णा',
सूर्य के ताप से पूछो,
वो तुम्हे तपा कर उत्तर देगा,
हैं क्या यह कोई 'ख्वाब'!
यही तुम्हारी वास्तविकता है,
तुम तो 'अग्रसर' हो यहीं पर,
तुम्हारी मानवता का 'सार' है यहीं,
खोजो,जानो,परखो तुम्हे मिलेंगे सारे उत्तर!
चलो मानो यह एक स्वप्न भी है,
तो तुम्ही तो हो इस 'दुस्वप्न' के रचीयता,
क्यूँ नहीं तुन्हे आते स्वप्न प्यार के,
छमा के, याचना के, ममता के, दान के!
जो तुमने बोया है,
उसी की फसल हूँ मैं,
खून से लिखी इबारत हूँ,
काफिरों की गज़ल हूँ मैं,
हाँ एक 'दुस्वप्न' हूँ मैं!
अभी कुछ समय हैं तेरे पास,
जाग, मत कर इतनी प्यास,
ले ये 'प्रण' आज,
देख कितने गवाह हैं तेरे पास,
और समय 'जाया' न कर,
भाग और पकड़ लें, अपनी पृथ्वी को,
वो और भी दूर जा रही हैं!
पानी की शीतलता ने एहसास कराया,
कोई स्वप्न नहीं हूँ मैं,
देखों कितने गवाह हैं यहाँ,
तारे, चंद्रमा, सूर्य, शनि, और देखो,
पृथ्वी भी हैं 'दूर' वहाँ!
मैं कोई स्वप्न नहीं,
चाहो तो वो दूर खड़े,
'गीजा' से पूछो, विशाल-विस्त्र्त 'गीजा',
तुम्हे अपनी वास्तविकता का परिचय देने ही,
मिश्र से यहाँ, स्वयं चलकर आया है!
मैं उतना ही सत्य हूँ, जितना,
भविष्य,भूत और वर्तमान, जितना,
समय, तुम और तुम्हारा 'मैं',
मानो मेरी, स्वप्न नहीं मैं!
चाहो तो काली हो चूँकि,
'ज्योत्सेना' से पूछो, नहीं में 'मृगतृष्णा',
सूर्य के ताप से पूछो,
वो तुम्हे तपा कर उत्तर देगा,
हैं क्या यह कोई 'ख्वाब'!
यही तुम्हारी वास्तविकता है,
तुम तो 'अग्रसर' हो यहीं पर,
तुम्हारी मानवता का 'सार' है यहीं,
खोजो,जानो,परखो तुम्हे मिलेंगे सारे उत्तर!
चलो मानो यह एक स्वप्न भी है,
तो तुम्ही तो हो इस 'दुस्वप्न' के रचीयता,
क्यूँ नहीं तुन्हे आते स्वप्न प्यार के,
छमा के, याचना के, ममता के, दान के!
जो तुमने बोया है,
उसी की फसल हूँ मैं,
खून से लिखी इबारत हूँ,
काफिरों की गज़ल हूँ मैं,
हाँ एक 'दुस्वप्न' हूँ मैं!
अभी कुछ समय हैं तेरे पास,
जाग, मत कर इतनी प्यास,
ले ये 'प्रण' आज,
देख कितने गवाह हैं तेरे पास,
और समय 'जाया' न कर,
भाग और पकड़ लें, अपनी पृथ्वी को,
वो और भी दूर जा रही हैं!
तुझे हर वक़्त देखा करता है
तुझे हर वक़्त देखा करता है,
मैं तेरी किताब में रखा,
मोहब्बत का ख़त नहीं, जो,
सिरहाने रख कर सोलिए,
फलक पढ़ कर रोलिए,
फिर पढ़-कर भूल गये,
मैं हिजाब हूँ तेरा, जो,
तुझे हर वक़्त देखा करता है!
मैं मुदस्सर ना सही,
तू आफ्रीन-बेदाग है!
याद रख इबादत में,
इस नक़ाब को ना हटा लेना,
यह ना समझ लेना,
तेरा आशिक़ काफ़िर हो चला,
क्या कहूँ,
इस मुआम्लाए में ख़ुदाई पर भी यकीन नहीं,
मैं नक़ाब हूँ तेरा, जो,
तुझे हर वक़्त देखा करता है!
दीदार-ए-यार में मज़हब,
ना भूल जाउ मैं,
मज़हब ना भूल जाउ मैं,
अब ये मुसलमान गुलाम तेरा है,
और तू बुत बनी, देख रही सब,
तू बुत बनी देख रही सब,
ये गुमान तेरा है,
तू बुत बन-बन बुत ही ना बन जाना,
बुत ही ना बन जाना,
'बुतपरस्ती' करना ना ईमान मेरा है!
उनके 'ज़ेहन' से-
"तू न ही मेरी किताब,
तू न ही मेरा 'हिजाब ',
तू न ही मेरा 'नक़ाब',
ए 'महबूब-ए-बेमुरब्बत' मेरे,
तू तो मेरा ख़्वाब है,
जिसे मैं हर वक़्त देखा करती हूँ!"
मैं तेरी किताब में रखा,
मोहब्बत का ख़त नहीं, जो,
सिरहाने रख कर सोलिए,
फलक पढ़ कर रोलिए,
फिर पढ़-कर भूल गये,
मैं हिजाब हूँ तेरा, जो,
तुझे हर वक़्त देखा करता है!
मैं मुदस्सर ना सही,
तू आफ्रीन-बेदाग है!
याद रख इबादत में,
इस नक़ाब को ना हटा लेना,
यह ना समझ लेना,
तेरा आशिक़ काफ़िर हो चला,
क्या कहूँ,
इस मुआम्लाए में ख़ुदाई पर भी यकीन नहीं,
मैं नक़ाब हूँ तेरा, जो,
तुझे हर वक़्त देखा करता है!
दीदार-ए-यार में मज़हब,
ना भूल जाउ मैं,
मज़हब ना भूल जाउ मैं,
अब ये मुसलमान गुलाम तेरा है,
और तू बुत बनी, देख रही सब,
तू बुत बनी देख रही सब,
ये गुमान तेरा है,
तू बुत बन-बन बुत ही ना बन जाना,
बुत ही ना बन जाना,
'बुतपरस्ती' करना ना ईमान मेरा है!
उनके 'ज़ेहन' से-
"तू न ही मेरी किताब,
तू न ही मेरा 'हिजाब ',
तू न ही मेरा 'नक़ाब',
ए 'महबूब-ए-बेमुरब्बत' मेरे,
तू तो मेरा ख़्वाब है,
जिसे मैं हर वक़्त देखा करती हूँ!"
- अभिषेक बुंदेला
हालत, हालात: हल? हल!
किस 'हालत' में 'राष्ट्र' खड़ा,
सॅड रहा 'अन्न' पड़ा-पड़ा,
न 'फूटत' निर्लज 'पापी-घड़ा',
किन 'हालात' में अब आन पड़ा?
'हालत-ए-हालात' हरण हल,
पीना पड़ेगा विष 'हलाहल',
मच जाएँगा 'हाहाकार',
'झुक' जाएँगी ये 'सरकार'!
हालत बदलने हालात बदलने का,
'हल' ही 'हल' है,
फिर 'उठाओ' अपने 'तरकश',
और वार करो इस 'बंजर' धरती पर,
बनाओ एक 'मानसरोवर' नया,
सींचो अपने खून से पुन:,
ये तय है,
मेहनत रंग लाएगी,
तेरे लहू से 'तृप्त' होकर,
'बंजर' भी 'मा' बन जाएँगी!!
फिर दो 'एक' और 'प्रमाण',
'झुक' जाए शर्म से हर 'इंसान',
अब 'लाल-बहादुर' जैसा कोई न मिलेगा,
करो तिलक अपनी मा का,
'भेंट' चढ़ाकर अपने 'शीश',
अरे 'लता' जैसी कई हैं,
गाने को तुम्हारा 'गीत'!!!
या एक बात मानो मेरी,
बग़ावत क्यों बुरी चीज़ हो?
न करता 'आज़ाद' बग़ावत,
क्या 'आज़ाद' कहलाता वो?
'हालत' व 'हालात' जस के तस हैं,
'हल' फिर भी 'हल' है,
अब चाहे 'बो' लो अपनी 'तकदीर',
या उठालो 'लाल' झंडा 'हल' का,
और बदल डालो 'राष्ट्र' की 'तस्वीर'!!!
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