मैं नहीं हूँ 'सुख' में न तुम 'इब्तिदा' करना,
बड़ा 'नमाकूल' हैं यहाँ गुनाहों का ज़िक्र,
तुम न कभी 'इलतज़ा' करना,
तू हैं 'हिंद-परस्त' औरों से ज़्यादा ही,
पर होगी तेरी हार गर तू,
बयान-ए-इख्तियार करना,
जो 'मुसलसल-ईमान' में रहकर,
'नासरपरस्त-ए-हिन्दुस्तानी' करे तो उसको 'उसूलन' ही,
मेरे अहल-ए-वतन ऐसे 'नाशुक्र-ए-गुजारों' से,
मेरे 'वतन' को 'नमज़हब-ए-हिन्दुस्तान' करना!!!
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