ये हुस्न-ए-बारात हज़रात के झंडे,
मैने देखें हैं वो ग़ुरबत-गुजरात के दंगे,
जिसने भी जलाई थी वो बोगी,
ना था वो खुदा का बंदा पर था वो जो भी,
तुमने जला कर 'अवाम' को,
समझा सिखाया था 'उनको' सबक,
लानत है मुझपे जो मैं चुप रहा अब तलक,
अब मैं बोलता हूँ ये ही,
'नफ़रत' का सिला 'नफ़रत' कब तलक सही?
हिंदू-मुसलमान को लड़ाया हद तक,
सब थी 'सियासत' की बातें तो चुप रहा अब तक,
अब कहता हूँ की आंगे बढ़ो 'अब्दुल-भाई' मेरे,
माफ़ करो हमको जो हुई ऐसी व्यवस्था,
मेरी 'ईदी' न मिले जब तलक,
'दीवाली' का दीप 'मुझसे' नहीं जलता!!!
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