गिला अब क्या करूँ जब,
जान-समझ गया हूँ शक़्शीयत सारी,
जिन्होने दिए थे 'नारे' 'सारे' 'इंसानियत' के,
और कहा था की सुन लो ए नज़ारे,
मैं तुम ही का हूँ 'भारत' और उसके किनारे,
जो 'एक' मर्तबा जान लिया मैने तुम्हे तो,
ये क्यूँ कहने लगे सारे,
क़ि करते हो तो बहुत 'ज़ुल्म' इंसानियत का तुम,
फिर क्यूँ तुम ये सोचते हों 'इंसान' हैं बस हमारे,
फिर क्यूँ तुम ये सोचते हों 'इंसान' हैं बस हमारे,
इंसान हैं गर अगर 'गुरूर' हैं हमे,
जो पूछे नहीं 'धरम-करम' बस हों,
'इन्क़िलाब' के मारे!!!
No comments:
Post a Comment